रविवार, 7 सितंबर 2008

पूरन का कुंआ

पूरन भक्त की कुर्बानी और सामंती दौर में अपनी परंपराओं से जुड़े रहने के बदले में मिली मौत से भी बदत्तर सजा की कहानी पंजाब के बच्चे-बच्चे की जबान पर है। पूरब ही नहीं पश्चिमी पंजाब का भी हर बाशिंदा इस कहानी को अपने मन में बसाए हुए है...

उस दिन राजे सलवान के घर पूरन ने जन्म लिया, उसी दिन लद्धी के घर में दुल्ला पैदा हुआ था। यह अकबर के राज्यकाल का समय था।Ó फरूखाबाद के रहने वाले और वारिस शाह फाउंडेशन के प्रधान मोहम्मद वारसी बहुत उत्साह से बता रहे थे। हमारे पास लाहौर हाईकोर्ट के जज जनाब अकरम बिट्टु, जो साईं मीयां मीर दरबार लाहौर के चेयरमैन भी हैं, की गाड़ी की और हम लाहौर से सियालकोट के शाहराह पर जा रहे थे। मेरे साथ अमृतसर के हरभजन सिंह बराड़ और साईं मीयां मीर इंटरनैशनल फाउंडेशन की लुधियाना इकाई के प्रधान भुपिंदर सिंह अरोड़ा थे। मोहम्मद वारसी हीर बहुत अच्छा गाते हैं और रास्ते में उनके मीठे बोल हमारे कानों में मिठास घोलते रहे। बीच-बीच में वह हमें इर्द-गिर्द की जानकारी देते रहे।
सियालकोट में हम नजीर साहिब के घर ठहरे। सियालकोट से ढाई-तीन किलोमीटर दूर पूरन भक्त के ऐतिहासिक कुंएं का सेवादार है। उसे हमारे आने का पहले से ही मालूम था, इसलिए वह अपने परिवार समेत हमारा इंतकाार कर रहा था। वह 75 वर्ष का सादा मिजाका व्यक्ति था। उसकी पत्नी हमें बहुत अदब से ले गई और कहने लगी कि उसने साठ साल बाद सरदार देखे हैं। उसने बताया कि बंटवारे के वक्त वह दस वर्ष की थी और कुछेक धुंधली यादें अभी भी उसके मन में हैं।
नजीर को साथ लेकर हम बाहर निकले, तो बस स्टैंड के पास खान स्वीट शॉप वाले ने हमारा रास्ता रोक लिया। वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और कहने लगा कि मेरी दुकान से लस्सी पीकर कारूर जाना। यही नहीं हमें देखकर इर्द-गिर्द आ पहुंचे लोगों को भी उसने लस्सी पिलाई। लगभग 20-25 गिलास लस्सी उसने पिला दी। बराड़ साहिब ने पैसे देने के लिए पर्स निकाला, तो वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, 'सरदार साहिब, पैसे किसलिए? मैं तो बहुत खुश हुआ हूं अपने भाइयों के दर्शन करके। इसी तरह आते-जाते रहा कीजिए।Ó वह पीछे से पठानकोट का रहने वाला था। बंटवारे का दर्द उसकी आंखों में भी था।
हम पूरन के कुंएं के पास पहुंच गए। बहुत बड़े घेरे में वृक्षों के झुंड में यह बहुत ही अद्भुत नकाारा था। नजीर बोला, 'बंटवारे से पहले यहां हकाारों हिंदू आते थे। इस कुंएं की बहुत मान्यता थी। लोग इसका जल अपने घरों में ले जाते थे। इस कुंएं के पानी से नहाने से कई बीमारियों से मुक्ति मिलती है, यह लोगों का मानना था। अब मुस्लिम लोग भी आते हैं।Ó वह बातें कर रहा था, तो मैं उसकी भाषा पर ध्यान दे रहा था। उसकी भाषा से डोगरी बोली की महक आ रही थी। मैंने उसे इसके बारे में पूछा, तो कहने लगा कि जम्मू यहां से कयादा दूर नहीं। शायद इलाके का असर हो।
पूरन के कुंएं के नकादीक नानकशाही र्ईंटों से बना हुआ वह कमरा भी है, जिसमें पूरन को कुंएं से निकालकर रखा गया था। नजीर ने अपनी मीठी डोगरी भाषा में पूरन की कथा सुना दी। मैंने कुछ अंश शिव कुमार बटालवी की 'लूणाÓ में से सुनाए। नजीर ने वह जगह दिखाई, जहां राजा सलवान का बाग था। पूरन की अंधी हो चुकी मां इच्छरां भी उसे इसी बाग में मिली थी। पास ही गुरु गोरखनाथ का टिल्ला था। मुझे इन ऐतिहासिक जगहों पर घूमना अच्छा लग रहा था। टिल्ले पर पहुंचकर वारसी से रहा न गया। वह ऊंची आवाका में गाने लगा—
तेरे टिल्ले त्तों सूरत दींहदी हीर दी,
औह लै वेख गोरखा, उडदी ऊ फुलकारी।
-तलविंदर सिंह
(लेखक पंजाबी कथाकार हैं)